हमारे कुनबे के इक बड़े बुजुर्ग शायर रहें बड़े बगावत वाले हबीब जालिब,
मैं कोशिश करता हूँ की उनकी जमीन में इक नज़्म सुनाऊँ आपको!
सच बात की पैरोकारी हैं,
सौ झूठ पे इक सच भारी हैं,
हर दौर में सच के साथ रहें,
शायर की ज़िम्मेदारी हैं,
शायर की ज़िम्मेदारी हैं!
मैं आग से लड़ने ने निकला हूँ,
अंगारों से क्या डरना,
क्या डरना!
मैं शायर हूँ,
इक शायर को सरकारों से क्या डरना!
क्या डरना!
इक मर्तबा आज़ाद हिन्दोस्तान के पहले वज़ीर-ए-आजम पंडित जवाहरलाल नेहरू साहब संसद की सीढ़ियो से उतर रहे थे,
उनके साथ उस वक़्त हिन्दी के बहोत बड़े कवी शायर, जिन्हें राष्ट्रकवी कहा जाता था रामधारी सिंग दिनकर साहब भी उसी पार्लमेंट का हिस्सा थे, वो भी उनके साथ संसद की सीढ़ियो से उतर रहें थे, एकाएक नेहरू जी का पाँव लड़खड़ाया, नेहरू जी गिरने को हुए की दिनकर जी ने उनका हाथ थाम लिया, तो नेहरू जी ने दिनकर साहब से कहाँ, की दिनकर जी आपका बहोत शुक्रिया, आपने मुझे गिरने से बचा लिया! तो दिनकर जी के जवाब को हम तमाम कलमकारों का जवाब समझा जाए, दिनकर जी ने कहाँ, नेहरू जी इस मुल्क की सियासत के कदम जब-जब लड़खड़ाएंगे, साहित्य और अदब हमेशा उसे सहारा देने का काम करेंगा!
शायद मैं उसी ज़िम्मेदारी के साथ ये नज़्म आपको सुना रहा हूँ!
सच बात की पैरोकारी हैं,
सौ झूठ पे इक सच भारी हैं,
हर दौर में सच के साथ रहें,
शायर की ज़िम्मेदारी हैं,
शायर की ज़िम्मेदारी हैं!
मैं आग से लड़ने ने निकला हूँ,
अंगारों से क्या डरना,
क्या डरना!
मैं शायर हूँ,
इक शायर को सरकारों से क्या डरना!
क्या डरना!
एहसास की शिद्दत मद्-धम हैं,
लफ़्ज़ो में खुशी न मातम हैं,
इस बात पे बस ईमान रखो,
हर जुल्म की उम्र बहोत कम हैं!
मैं सूरज हूँ,
और सूरज को अंधियारों से क्या डरना,
क्या डरना!
मैं शायर हूँ,
इक शायर को सरकारों से क्या डरना!
क्या डरना!
झूठों का नारा हारेगा,
अल्लाह का मारा हारेगा,
आमीन कहों, आमीन कहों,
नमरूद दोबारा हारेगा!
जब जंग में निकले हो तो,
फिर तलवारों से क्या डरना,
क्या डरना!
मैं शायर हूँ,
इक शायर को सरकारों से क्या डरना!
क्या डरना!
तू जुल्म कहाँ तक ढाएगा,
देखें किस हद तक जाएगा,
हाँ झूठ फना होगा इक दिन,
और सच का अलम लहराएगा!
अल्लाह हमारे साथ हैं तो,
हथियारों से क्या डरना,
क्या डरना!
मैं शायर हूँ,
इक शायर को सरकारों से क्या डरना!
क्या डरना!