हर्फ़ पढ़ना सिखाया हैं उन्होने,
एहसासों को लिखना सिखाया हैं उन्होने,
जिंदगी होती क्या हैं बताया हैं उन्होने,
जब “इन्सिया” के खातिर सब मेरे खिलाफ खड़े थे,
तब अनकहे एहसासों से मेरा साथ दिया हैं उन्होने!
ये नज़्म उसी शख़्स के लिए...
नन्ही सी आँखे और मुड़ी हुई उंगलिया थी,
ये बात तब की हैं, जब दुनिया मेरे लिए सोयी हुई थी!
नन्हें से बदन पर नया कपड़ा पहनाता था,
ईद-वीद की समझ न थी मुझे,
पर फिर भी मेरे साथ मनाता था!
घर में रोजी के वांदे थे, पर मेरे लिए पैसा जोड़ रहा था,
और उसके खुदके सपने अधूरे थे, पर मेरे लिए बुन रहा था,
खुद पढ़ा-पढ़ाया न था, लेकिन मुझे अच्छी अँग्रेजी स्कूल में पढ़ाया था!
ये बात तब की हैं, जब दुनिया मेरे लिए सोयी हुई थी!
वक़्त कटा, साल बढ़ा, पर तब भी मेरे लिए सब अनजान था,
मैं फिर भी उसकी जान था!
बिस्तर को गीला करना हो या फिर रात को उठकर रोना,
इक बाप ही था, जिस से छीना मैंने उसका सुकून का सोना!
सुबह फ़जर तक गोद में खिलाता, झूले में झुलाता,
फिर दिन में कमाता, शाम में थका हारा चला आता,
कभी खुद से परेशान, कभी दुनिया का सताया था,
इक बाप ही था, जिसने मुझे रोते हुए भी हँसाया था!
अल्फ़ाज़ों से तो गूंगा था मैं, पर वो मेरे इशारे समझ रहा था,
मैं खुद इस बात से हैरान हूँ आज,
की कल वो मुझे किस तरह पढ़ रहा था!
अब्बा तो छोड़ो यार, अभी अ...भी निकला ना था,
पर फिर भी वो मेरी हर फरमाइशों को पूरा कर रहा था!
और मैं भी उसके लाड़ प्यार में अब ढलने लगा था,
घर से अब वो निकाल न जाए,
उसके कदमो पे नजरे रखने लगा था,
और मुद्दे तो हजार थे बाजार में उसके पास,
पर कब ढल जाएगा सूरज, उसको इसका इंतेजार था!
और मैं भी दरवाजे की चौखट को ताकता रहता था,
जब होती थी दस्तक तो वाकर से झाँकता रहता था!
देख के उसकी शक्ल में दूर से चिल्लाता था,
जो भी इशारे मुझे आते थे, उससे उसे अपने करीब बुलाता था,
वो भी छोड़ छाड़ के सबकुछ मुझे सीने से लगाता था,
कभी हवा में उछालता था, कभी करतब दिखाता था!
मेरी इक मुस्कान के लिए कभी हाथी, कभी घोडा बन जाता था,
और मैं सो सकूँ रातभर सुकून के साथ,
इसीलिए पूरी रात इक करवट में गुजारता था!
पर वो बचपन शायद अब सो चुका था,
मैं जवानी की दहलीज पर कदम रखने लगा था,
उसकी कुर्बानी को उसका फर्ज समझने लगा था!
चाहे वो फिर खुद बिना पंखे के सोना हो या मुझे हवा में सुलाना,
या फिर ईद का वो खुद पुराना कपड़ा पहनना हो और मुझे नया पहनाना,
या तपते हुए बुखार में वो माथे पे राखी हुई ठंडी पट्टिया हो,
या मेरी हर जिद के आगे झुक जाना!
वो बचपन था वो गुजर गया, वो रिश्ता था वो सुकड़ गया,
और मैं उस कुर्बानी के बोझ को उठा नहीं पाया,
इसिलिए मैं वो अपना गाँव कहीं दूर छोड़ आया!
नया शहर था, नए शहर की हवा मुझपे चड़ने लगी थी,
अपने बाप की हर नसीहत मुझे बचपना लगने लगी थी,
काम जो मिल गया था, पैसा जो आने लगा था,
क्या जरूरत हैं बाप को मेरी ये सोच मुझमे पलने लगी थी!
और उधर गाँव में मेरा बाप बैचेन था मेरी याद में,
की कुछ रोज तो घर आजा बेटा, बस यहीं था उसकी हर फ़रियाद में!
और मैं उस से हिसाब लेने लगा था,
जो दुनिया का कर्जदार बन चुका था,
क्या जरूरत हैं तुम्हें अब्बू इतने पैसो की,
अब ये सवाल करने लगा था!
बैलोस मुहब्बत की मूरत होती हैं बाप,
जो लफ़्जो में ना बुना जाए,
और कलमों से जो ना लिखा जाए,
वो होता हैं बाप!
जो रोते हुए को हँसा दे और खुदकों माज़ूर बनाके तुम्हें खड़ा कर दे,
वो होता हैं बाप!
इक रोज तुम्हें एहसास जरूर होगा,
की मसरूफ़ तुम थे, उम्रदराज वो होगा,
जिसकी उंगली का सहारा पकड़कर चला करते थे,
आज वहीं छड़ी का तलबगार होगा,
और जिसके सड़के में जी रहे हो आज,
कल वो ना रहें तो क्या होगा,
पर अभी वक़्त बचा हैं, कुछ खास तुम्हारे पास,
तब तक जब तक बाप का साया तुम्हारे साथ होगा,
और जन्नत के तलबगार हो तो सीने से लगा लेना,
क्यूंकी कल वहीं बाप जन्नत का सरदार होगा,
सब गिले शिकवे मिटा के चिपक जाना उसके सीने से,
क्यूंकी आज तो वो बाप हैं, कल तुम्हारे साथ ना होगा!