इन्सान के अपने यौम-ए-पैदाइश से ज़्यादा अहम दिन उस के लिए और कौन सा हो सकता है। ये दिन बार बार आता है और इन्सान को ख़ुशी और दुख से मिले जुले जज़्बात से भर जाता है।
हर साल लौट कर आने वाली सालगिरह ज़िंदगी के गुज़रने और मौत से क़रीब होने के एहसास को भी शदीद करती है और ज़िंदगी के नए पड़ाव की तरफ़ बढ़ने की ख़ुशी को भी।
२५ जनवरी को लिखी कुछ मिसरे मेरी “इन्सिया” की यौम-ए-पैदाइश-ए-हिमायत में...
“मेरे “मुहम्मद ﷺ” का मर्तबा ही कुछ ऐसा हैं,
के अल्लाह ने “मुहम्मद” की शान में कायनात बनाई हैं...
मेरा इश्क़ जश्न मना रहा हैं क्यूंकी “२५ जनवरी” आई हैं,
मैं कैसे अता करू ये इनायत का कर्ज रब्बुल आलमीन का,
जो उसने दुनिया में ही मेरे लिए “हूर-अल-ऐन” बनाई हैं...
मेरे आलम में देखो कैसी खुमारी छाई हैं,
जैसे मेरी “इन्सिया” जन्नत से जमीं पे उतर आई हैं...
वो मुनव्वर चांद हैं मेरें आसमां का,
यौम-ए-पैदाइश से मेरी “इन्सिया” की जैसे कोई ईद आई हैं...
ये दिन, ये महिना, ये तारीख जब आई हैं,
मैने बडे प्यार से मेरी “इन्सिया” की याद-ए-महफील सजाई है...
हर पन्ने पर लिख दिया उसका नाम,
चिराग बुझाकर भी अंधेरे में उसीकी तस्वीर बनाई हैं...
मेरी “इन्सिया” की जश्न-ए-आमद की रात आई हैं,
गम तो हैं मगर साथ खुशिया भी लाई हैं...
ए “इन्सिया” तुम चली आओ कुछ लम्हों के लिए मेरी बाहों में,
मैं भी मनाऊ की आज मेरी ईद आई हैं...
चांद भी छुप गया आसमान की बाहों में,
जो मेरी “इन्सिया” ने झलक दिखाई हैं...
मैनें किस्मत भी इस क़दर अजीब पाई हैं,
आज आमद हैं मेरी जान की और बस तन्हाई हैं...
क्या खूब करिष्मा हैं मेरे अल्लाह का,
मैं रो रहा हुं और बस तन्हाई हैं...
कुछ तो तरस आया मुझपर मेरे अल्लाह को,
मेरे अश्को को तन्हा पाया और बारीश बरसाई हैं...