“मैं ज़्यादा नहीं, सिर्फ आपके पाँच मिनिट लेना चाहता हूँ,
इक बात हैं, कुछ मेरे जज़्बात हैं, जो आप सब तक पहुंचाना चाहता हूँ,
अपनी जिम्मेदारियों को अलफाज देना चाहता हूँ,
निभानी तो हैं मुझे, बस दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूँ!
ये नज़्म घर के इकलौते बड़े लड़के की हैं,
जो मैं आपको सुनाना चाहता हूँ!
तो बात कुछ यूं हैं की, मैं अपने घर का इकलौता बड़ा लड़का हूँ,
थोड़ा समझदार, थोड़ा जिम्मेदार लड़का हूँ!
ये ज़िम्मेदारी मैं खुदकों सौंप चुका हूँ,
बस इसीलिए घर छोड़ कर निकल चुका हूँ!
वर्ना सुनहरे गाँव की छोटीसी बस्ती में इक मकां मेरा भी हैं,
छोटा ही सही, मगर अम्मी-अब्बू से सजा इक जहाँ मेरा भी हैं,
घर में बुजुर्ग दादी, बुआ भी हैं, परिवार चाचू का भी हैं,
और उन सबकी सरपरस्ती का कुछ...कुछ जिम्मा मुझपर भी हैं,
चूंकि अड़तालीस के हैं, तो अब्बू की उमर होने लगी हैं,
पर घर का चूल्हा-चोका तो चलना ही हैं!
अब्बू की बालों की सफेदी...चाचू की चाँदी सी दाढ़ी का एहसास कर चुका हूँ,
बस इसीलिए घर छोड़ कर निकल चुका हूँ!
मैं अपने घर का इकलौता लड़का हूँ,
थोड़ा समझदार, थोड़ा जिम्मेदार लड़का हूँ!
तकरीबन उम्र बीस-इक्कीस की थी, जब मैंने पहली बार घर की दहलीज को पार किया था,
और दुनिया ठीक से देखी भी न थी, जब मैंने काम शुरू किया था!
दुनियावी अक़्ल ना थी, पर ठोकर खाने की हिम्मत भी न थी,
पर खुदकों यें समझा लिया था,
की “अम्मू” अगर आज तू धूप में तपेगा नहीं,
तो कल घर का चूल्हा जलेगा नहीं,
और कुछ लोग जिंदा हैं, फकत तेरी उम्मीद पर
अगर आज तू बढ़ेगा नहीं, तो कल उनका सँवरेगा नहीं!
फिर तीन बहनों की शादी भी हैं, उस छोटे भाई की जेबखर्ची भी हैं,
फिर कुछ दिनों में ईद भी आने वाली हैं, अम्मी-अब्बू की घरख़र्ची भी हैं!
बस यहीं चंद कुछ जिम्मेदारिया समझ चुका हूँ,
बस इसीलिए घर छोड़ कर निकल चुका हूँ!
मैं अपने घर का इकलौता लड़का हूँ,
थोड़ा समझदार, थोड़ा जिम्मेदार लड़का हूँ!
ना अब्बू को कुछ दे पाता हूँ, ना अम्मी की ख्वाहिशे पूरी होती हैं,
मैं घर का इकलौता लड़का हूँ, मगर फिर भी मेरी ईद बड़ी अधूरी होती हैं!
चार दिवारे और इक आईना हैं घर में,
बस उनसे ही कुछ बक-बका लेता हूँ,
“हिज्र-ए-इन्सिया” में आता हैं खूब रोना, चुपकेसे रो भी लेता हूँ,
खुद के सवालों का, खुद ही जवाब दे देता हूँ,
तन्हाइयों में लिपटा हूँ मैं, मगर सब गम छुपा लेता हूँ,
जब फोन घर से आता हैं, तो कुछ चटपटे क़िस्से भी सुना देता हूँ,
हर इतवार बड़े प्यार से भेजते हैं अम्मी-अब्बू मिठाई,
आंखों में आँसू, उनकी की याद में खा लेता हूँ!
सब दर्द भरी दास्ताए सब भूला चुका हूँ,
सब गीले-शिकवे मिटा चुका हूँ,
घर को आबाद करने निकला हूँ,
पर खुद घर से बेघर हो चुका हूँ,
किसी को पाना था उम्र भर के लिए,
जिम्मेदारियों की जद्दो-जहद में सबसे कीमती “इन्सिया” को खो चुका हूँ!
मैं घर का इकलौता बड़ा लड़का हूँ,
बस इसीलिए घर छोड़ कर निकल चुका हूँ!
घर से बाहर के खाने से नफरत थी मुझे,
पर आज मजबूरी में कैसे भी काम चला लेता हूँ,
खाने पर जमाने भर के नख़रे करने वाला था मैं,
पर आज जो है, जैसा है, वो सब खा लेता हूँ,
पर अफसोस क्या करूँ, यही तो दस्तूर हैं दुनिया का "अम्मू",
बस इतना कहकर दिल को मुश्किल से बहला लेता हूँ!
वर्ना बड़े खुशकिस्मत होते हैं वो लोग, जो साथ मिलकर रहते हैं,
मुझ जैसे तो इस शहर में कई सारे रहते हैं,
कुछ अस्पतालों में दम तोड़ देते हैं, कुछ बुखार में तपते रहते हैं,
अपना यहाँ किसे कहा जाए, वो तो सिर्फ गाँव में रहते हैं!
इसीलिए मैं इक बात कहना चाहता हूँ,
की अगर कोई पड़ोसी या दोस्त हो तुम्हारा मुझ जैसा,
तो उसे अपना बना लेना,
घर में ना सही, तू दिल में जगह दे देना,
जो माँ से दूर रहकर माँ के खाने को तरस रहा हैं,
कभी महफिल सजाओं तो, उसे भी बुला लेना,
वो आसमानों की उड़ानों में उड़ना चाहता हैं,
अपने अब्बू को फक्र हो ऐसा कुछ करना चाहता हैं,
हो सके तो उसके पंखो मे हौसला बढ़ा देना!
फिर वो जहां भी जाएगा, तुम्हें याद करेगा,
वो घर का इकलौता बड़ा लड़का हैं,
सिर्फ अब्बू की खातिर, अपना बड़ा नाम करेगा...!!!
हा वो ज़रूर बड़ा नाम करेगा...!!!
- अम्मू