“मुहाजिर हुं मगर मैं इक दुनिया छोड आया हुं,
मेरे पास जितना हैं मैं उतना छोड आया हुं!
कहानी का ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाये रखा हुं,
कि मैं मिट्टी के खातिर अपना सोना छोड आया हुं!
नई दुनिया बसा लेने की इक कमजोर चाहत में,
मेरे घर की दह्लीजो सुना को छोड आया हुं!
जो इक पतली सी कच्ची सडक चक्की के पास से मेरे घर तक जाती हैं,
वहीं पर मेरे हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड आया हुं!
यकीं आता नहीं, लगता हैं कच्ची नींद में हुं शायद,
मै अपना घर, वो पतली गली और मोहल्ला छोड आया हुं!
मेरे लौट आने की दुआए करता रहता हैं,
मैं अपनी छत पे जो चिडीयों का जत्था छोड आया हुं!
मुझे हिजरत की इस अन्धी गुफा में याद आता हैं,
अम्मी का प्यार और अब्बू का दुलार छोड आया हुं!
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहां जब था,
ईद छोड आया हुं, बडे दादा की ईदी छोड आया हुं!
मुझे यहां सूरज की किरनें इस लिये तकलीफ देती हैं,
क्युंकी मैं वो मासूम से बच्चो के साथ वाली शाम, खेत का सवेरा छोड आया हुं!
मैं अपने साथ तस्वीरे तो ले आया हुं किसी खास की,
लेकीन किसी शायर-मुसन्नीफ ने लिखी प्यार की यादें छोड आया हुं!
उसकी आंखें अभी तक ये शिकायत करती हैं,
के मैं बहते हूए काजल का दरिया छोड आया हुं!
ये हिजरत तो नहीं थी, बुजदिली शायद मेरी थी,
के मैं अपने घर-गली-मोहल्ले-प्यार की मखमली यादों को छोड आया हुं!
महिनो तक तो अम्मी भी बैचैन थी,
उन्हे मुझे ढूढना था इसलिए मोहल्ले में मेरा साया भटकता छोड आया हुं!
वजारत भी मेरे वास्ते कम मर्तबा होगी,
मैं अपने मां-बाप के हाथो में निवाला छोड आया हुं!
यहां आते हुए मेरा हर किमती सामान ले आया,
मगर गालिब का लिखा तराना छोड आया हुं!
जनाब-ए-मीर का दीवान तो मैं साथ ले आया,
मगर मैं अब्बू के माथे की शिकन छोड आया हुं!
हंसी आती हैं अपनी अदाकारी पर खुद मुझको,
बने फिरता हुं “क़ैस” और अपनी “लैला” छोड आया हुं!
गुजरते वक्त यहां के बाजारों में अब भी याद आता हैं,
मैं उस मासूम “इन्सिया रानी” को उसके कमरे में संवरता छोड आया हुं!
यहां ये आसमान का चांद मुझसे इतनी बेरुखी से बात करता हैं,
मैं अपनी झील में मेरा इक खुबसुरत सा चांद उतरा छोड आया हुं!
मुझे मरने से पहले सारे आलम को ये ताकीत करना हैं,
के किसी को मत बता देना की मैं क्या-क्या छोड आया हुं!
- अम्मू